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महाबोधि महाविहार के निर्माण और जीर्णोद्धार

 बर्मा के राजाओं और आमजन का महाबोधि महाविहार के निर्माण और जीर्णोद्धार में महान योगदान रहा है. वे लोग तो आज भी सुबह उठते ही भारत भूमि के महाबोधि की ओर हाथ जोड़कर वंदन करते हैं कि इस भूमि ने उन्हें बुद्ध और धम्म दिया.

10से 12 वीं तक बर्मा के अलग अलग प्रांतों के राजाओं का बड़ा योगदान रहा है. बाद में तुर्क की मुस्लिम सेना के आक्रमण से तबाह होने पर यह सब रुक गया.
13वीं सदी के आख़िर में बर्मा के बौद्धों ने महाविहार के रख रखाव और विकास में फिर आगे आए. टूटे भागों का मरम्मत करवाया और रख रखाव के लिए दान दिया जो यहां के अभिलेखों में लिखा हुआ है.
1590 ई. में घमंडगिरि शैव सन्यासी बुद्धगया आया और अस्थायी रूप से रहने लगा. धीरे धीरे महाबोधि के पास उसने एक छोटा मठ बनवा दिया.
18वीं सदी में उसके उत्तराधिकारी लाल गिरी ने दिल्ली के मुस्लिम शासक से महाबोधि विहार के आस पास दो गाँव मस्तीपुर और ताराडीह को अनुदान के रूप में प्राप्त कर लिया. लेकिन महाबोधि विहार को स्वतंत्र ही रखा गया. लाल गिरी का किसी प्रकार का अधिकार नहीं था.
देश विदेश के हज़ारों भिक्षु वहां से जा चुके थे. दो चार भिक्षु रहते थे. महंत को मौक़ा मिला और धीरे धीरे स्थानीय लोगों की मदद से अतिक्रमण बढ़ाता गया.
19वीं सदी के शुरू में बर्मा के राजा ने महाबोधि की पूरी जानकारी लेने के लिए अपने दूत भेजे.
1810 ई. में बर्मा के अलम्पोरा और मांडले के राजा ने महाबोधि विहार का सम्वर्द्धन करवाया.
1823 में राजा ने एक शिष्टमंडल बुद्धगया भेजा और निर्देश दिया कि महाविहार में भगवान बुद्ध की पूजा वंदना का ऐसा प्रबंध करें कि नियमित होती रहे. बर्मा के उस दल ने लालगिरी के एक शिष्य को बौद्ध पूजा विधि का प्रशिक्षण दिया और उसे यह काम सौंप कर वापस बर्मा चला गया .
लंबे समय तक महाविहार में पूजा अर्चना का पूरा ख़र्च बर्मा सरकार द्वारा वहन किया जाता रहा. इसके बाद राजाओं ने वहाँ एक धर्मशाला का निर्माण कराया जो निरंजना नदी के किनारे और महंत के मठ के पास थी. राजा ने दो बड़े विहार भी बनवाये थे. लेकिन वहाँ कोई भिक्षु नहीं थे इसलिए महंत ने धीरे-धीरे दोनों विहारों और धर्मशाला को अपने मठ की बाउंड्री के अंदर कर कब्जा कर लिया.
इसके बाद लंबे समय तक यूरोप के कई विद्वानों ने भी यहां की दुर्दशा को देखा और ब्रिटिश सरकार को महाविहार के जीर्णोद्धार के लिए लिखा लेकिन सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया.
आख़िर 1861 में मेजर जनरल अलेक्जेंडर आए. पूरा सर्वेक्षण किया और सरकार को आगाह किया कि यदि हमारी ब्रिटिश सरकार इसका उत्खनन और जीर्णोद्धार नहीं कराएगी तो फ्रांस और पूर्तगाल की सरकार इसे करेंगे, हमारी सरकार इसे अच्छी तरह जान लें.
आलेख: डॉ एम एल परिहार, पाली- जयपुर 9414242059
बाक़ी अगली कड़ियों में

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